वो सुनहरे पल
जब ज़िन्दगी को ज़िन्दगी मिली

यूँ तो खट्टी मीठी सी ख़ुशनुमा ज़िन्दगी बीत रही थी मेरी, और जी रही थी मैं, आराम से, बाहर की दुनिया के ख़ूबसूरत रंगों को अपलप निहारते और दुलारते हुए। अपनी ही मस्ती में गुम और इस बात से अनजान कि हमारे भीतर भी रहता है कोई। कोई यानी मैं, मेरी रूह। और अपने भीतर भी बसती है एक दुनिया।जो मेरी है, सिर्फ़ मेरी। बेहद हसीन। दिलकश। रूहानी। जिसकी रंग और महक के आगे फीका है बाहर का ज़मीं-आसमां। अपने अंतर्मन के नशीले सुरों के आगे बेसुरा है जगत का संगीत। वो रूहानियत का ऐसा आलाप है कि उसका मज़ा बिना डूबे आ न सकेगा। और अगर डूब गए बस एक बार तो फिर उस समंदर में किसी बेनिशां जज़ीरे की तरह बहते रहने को ही जी चाहेगा।

प्रेम उस आंतरिक जगत की बेहद गहरी नदी है।इतनी गहरी की उसमे जन्मो जन्मो से बिछड़े प्रभु से जुड़ाव हो जाता है। उसका परिचय मिल जाता है। और जब प्रभु के रंग में मस्त कुछ दीवाने ज़िंदगी के किसी चौराहे पर बावस्ता होते हैं आपसे तो कुछ अलहदा सा आभास होता है। कुछ पुरसुकूं सा अहसास होता है। और अपने मालिक से कुछ बिछड़े परिंदे जब साथ आते हैं तो उसके दीवानों की एक अलबेली बज़्म नुमाया होती है। झुंड बन जाता है। और जुड़ जाता है एक गहरा रिश्ता। बन जाता है एक कारवाँ, एक परिवार। कुछ ऐसे ही परिवार के साथ गुज़ारे हुए पलों को ज़िन्दगी ने ऐसे महसूस किया जैसे वो पल अब तलक भी कहीं बह रहे हैं मेरे अंदर और गहरे पैठ गए हैं अंतर्मन में। रूह के भीतर किसी गहरी नदी में।

बात इसी वर्ष 28 मार्च की है जब मैं मेरे पति और बेटे के साथ बरेली से दिल्ली एयरपोर्ट की ओर बढ़ रही थी। हमारी ख़ुशी हिलोरें ले रही थी। आनंद हो भी क्यों न आखिर। अपने मुर्शिद से अपने मालिक से प्रेम की डोर को मजबूत करने वाला रहनुमा अपनी रहमत बरसाने जों आ रहा था, आँगन में हमारे। सदगुरुश्री, जिन्हें हम प्रेम से “साहेब” कहते है।घर में उनके स्वागत की सभी व्यवस्थाओं को करके हम लोग रवाना हो चुके थे। 6 घंटो के सफर के बाद दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुँचे और वो घड़ी भी आ गयी जब हम लोगो ने साहेब की पहली झलक का दीदार किया।
सच पूछो तो ठीक से देख ही नही पा रही थी मैं उन्हें। मुमकिन नहीं था। कैसे देख सकती थी एकदम से उन्हें। वो तो महाप्रकाश थे। बेहद तेज़। और ये आँखे इतनी चमक की आदी न थीं। आसां नहीं था उन्हें एकटक देखना। हम लोग उनको देखते ही उनके चरणों में झुक गए। नतमस्तक। उनके चरण स्पर्श से मानो एक नयी ऊर्जा मिली हो मुझे ज़िन्दगी की। लगा कि उनके चरणों से जैसे बिजली सी निकली हो कोई और समां गयी मेरे रोम रोम में। समझ नही आ रहा था कि उस अदभुत अहसास का क्या करूँ। उनको फूलो की तरह कहीं सहज के रख लूँ अपने पास। या बसा लूँ ह्रदय में। मन में उमड़ती घुमड़ती भावनाएं सैलाब की तरह बह रहीं थी दिल में और साहेब गाड़ी में बैठ गए। हम सब बरेली के लिए रवाना हो गए।उनके साथ छः घंटों का सफर जैसे कुछ पलों में ही गुज़र गया। और हम बरेली आ गए। बरेली, सिनेमाई झुमकों और बर्फ़ी से इतर, मेरा शहर, मेरा घर।

दिल की धड़कनें उस पल थम सी गयी थी जब साहेब हमारे घर के दरवाज़े पर थे। उनकी आरती उतारूँ, या उनको निहारूँ, उनको फूलो से सजाऊँ, के कुमकुम से संवारूँ। या दियों की उन टिमटिमाती रौशनी को संभालूँ, जो सूरज जैसे साहेब के आगे काँप रहीं हों जैसे। समझ नही आ रहा था कुछ भी। उनके स्वागत के वक़्त संगीत बजाने की इच्छा थी मेरी। लेकिन भूल गयी थी आपाधापी में।
पर उनको तो जैसे मेरी हर बात पता थी। तभी अचानक से कुछ हुआ मेरे भीतर। जैसे सक्रीय हो गया कोई चक्र। जैसे मेरे कानों में गूँज उठे हों अनहद नाद। पाँचों ध्वनियाँ, टन टन, खन खन, झन झन। जैसे वाकई अंतर्मन के किसी sound system पर स्वर लहरियाँ थिरक उठी हों। काँप उठी मैं। सिहर गयी। देखने लगी उनके चरणों में।उनमें विराजमान प्रभु और मालिक को पहचान लिया हो मैं जैसे।

घर में उनका प्रवेश किसी गृह प्रवेश से कम नही लग रहा था। उनके चरणों को धुलकर उस जल को किसी पवित्र गंगा की तरह सहेज लिया। सुबह के 5 बजे थे। ब्रह्म मुहूर्त। आखिर साक्षात प्रभु का प्रवेश हुआ था तो महूरत तो खुद-ब-ख़ुद ही शुभ होना ही था।
इतने लंबे सफर के बाद साहेब को थका हुआ जान कर हम लोगो ने उन्हें आराम करने दिया। सच कहो तो वो नही थकते पर उनको हमारा ख्याल था इसलिए खुद आराम करने के बहाने हम लोगो को आराम करने को कह दिया। सभी लोग सो चुके थे। मैंने उनके चरणों के जल से अपना निर्जल व्रत खोला।आखिर भगवन मेरे घर आये थे तो व्रत तो रखना ही था।पर उनको तो सब पता था जैसे। व्रत में भी इतनी भाग दौड़ करने के बाद भी मुझे थकान का कोई असर ही न था।सारी दुनिया सो रही थी एक मेरी ही आँखों में नींद न थी । ख़ुशी के मारे मुझे नींद ही नही आ रही थी बिलकुल।हर पल ये ही लग रहा था कि साहेब उठे तो कुछ सेवा कर लूँ उनकी।कुछ खिला दूँ। कुछ बात कर लूं। या कुछ करूँ न करूँ पर उन्हें निहार लूँ जी भर के।ये ही सोचते सोचते सूरज नहा धोकर निकल आया पर मुझे नींद न आयी।इसलिए लग गयी घर के कामो में।

वक़्त ज्यादा तो न हुआ था,पर मेरी आँखों को एक एक पल उनके दर्शन का इंतज़ार था इसीलिए हर पल किसी सदी से कम नही लग रहा था।जैसे कुछ घंटे नही वरन एक अरसा बीत गया हो।उनके इंतज़ार में हर पल किसी तपस्या से कम न था।और तपस्या का फल तो मालिक देते ही है।साहेब की सुबह की वो पहली झलक और उनके पीछे खड़े आशीर्वाद देते हुए मालिक को मैंने कभी खुद के इतना करीब न पाया था।अंतर की आँखों से अनायास ही अश्रु धारा बह रही थी और मै बाहर से मुस्करा रही थी। उस वक़्त मालिक की एक प्रार्थना की एक लाइन मेरे मन में गूँज उठी,

” मुस्कान तुम्हारे अधरों की दे जाती बड़ा सहारा है”।

साहेब के जो भी काम मै करती, खुद को मालिक के उतना ही करीब पाती इसीलिए उनकी किसी भी सेवा को करने के किसी अवसर से मै नहीं चूकती। सच कहूं तो मेरी क्या औकात जो उनकी सेवा कर सकूँ। मेरे अंदर प्रवाहित तड़प और रुदन को देख शायद मालिक की मौज़ हो गयी मुझ पर।और साहेब के रूप में मुझे मौका दे दिया अपनी सेवा का। क्योकि साहेब हमेशा कहते कि हम लोग जो भी सेवा करते है उनकी वो सब कुछ मालिक के चरणों में अर्पण कर देते है। हम जब भी उनके चरण का स्पर्श करते, उनकी आँखें स्वमेव बंद हो जाती। इस तरह मैंने मालिक की अपार सेवा का लाभ उठाया और खुद को उनके बेहद करीब पाया।
बड़े ख़ूबसूरत थे वो लम्हे। ज़िन्दगी को पहली बार ज़िन्दगी की तरह जीया हमने उन 4 दिनों में साहेब के साथ। उनके लिए खाना बनाना ,खिलाना,हर चीज़ व्यवस्थित करना,ज़िद करके फिर कुछ खिलाना,सेवा करना…… ये सब किसी सपने से कम न था मेरे लिये।ऐसा लग रहा था की ये ही मेरा असली काम हो जैसे।
साहेब के प्रेम में दूर-दूर से खिंचे चले आये ढेरों प्रेमी भाई बहनों की तो खबर ही न ले पायी मै ठीक से।पर उनको तो सबकी खबर होती है सबकी चिंता रहती है।इसीलिए मै तो सिर्फ उन्ही के कामो में मश्गूल थी और शायद मेरे काम सूक्ष्म रूप से वो ही कर रहे थे।तभी तो न जाने कैसे घर आये प्रेमियों की सभी व्यवस्थाएं खुद-ब-ख़ुद होती चली जा रही थी।मुझे तो न खुद की सुध थी और न ही किसी और की।किसी साधन-भजन से कम न थे मेरे लिए वो 4 दिन।न सिर्फ मेरे लिए वरन उनके प्रेम डूबे हर प्रेमी की साधना ही चल रही थी जैसे मेरे आँगन में, मेरी दहलीज़ पर। मन्दिर बना दिया था उन्होंने मेरे घोंसले को।
मालिक की दया का उनकी कृपा का उनकी मौज़ का मानसून आ गया था मेरी छत पर।और पूरा मोहल्ला उस सुनहरी धूप में नहा रहा था।जिसमे हम सभी प्रेमी दिन रात भींग रहे थे।हमें जब मौका मिलता साहेब के पास आकर बैठ जाते और वो बेहद ऊपर का सत्संग सुनाते, अंतर का दुर्लभ भेद बताते, भजन कराते। दिन में कई दफ़ा, कई बार। कई कई बार। जो उनसे मिलने आता, बस उनका ही हो जाता। ऊर्जा के महापुंज हों जैसे। दिन रात की कोई खबर होने ही न दी साहेब ने हमें।बस वो सत्संग की गंगा में भिगोते रहे हम सभी को हर दिन हर रात।
धीरे धीरे रखसत की बेला भी आ गयी। मानो वो दिन वो समय घूर रहा हो हमें, चिढ़ा रहा हो जैसे। लेकिन हमारे मालिक के आगे काल की कहाँ चलती है।उनको पता था कि अंतिम दिन की विदाई हम सब सह न पाएंगे इसलिए खेल दिया नया खेल ,और खिला दिए हमारे दिलो में लाखों फूल अपनी रहमत के,जिनकी खुशबू प्रेम में डूबा भक्ति में भीगा हर प्रेमी महसूस कर रहा था शायद।हमारी हर तकलीफ को हमसे पहले हमारे मालिक समझते है ,इस बात का अहसास भली भाँति कर चुकी थी मै आखिरी दिन पर।
घटनाचक्र कुछ यूँ हुआ कि हम लोग साहेब को छोड़ने दोबारा दिल्ली गये तो हम सब भी साहेब के साथ ही रुक गए।वहीं। दिल्ली में ही। हमारा वहां रुकने का कोई plan नही था।पर मालिक ने तो सारी planning कर रखी थी।उन्हें पता था छोड़ न पायेंगे हम साहेब को ऐसे एकदम से।इसीलिए दिल्ली में कुछ और पल दे दिए हम लोगो को।और उन पलों ने मालिक और साहेब के प्रति प्रेम को सहज के संजो के रखने की क्षमता दे दी। लौटते वक़्त ख़ूबसूरती से कुछ ऐसा करवा दिया, दिमाग़ को कई बातों में हौले से कुछ ऐसा उलझा और घुमा दिया कि जिससे हम लोगो को दर्द न हो ज्यादा, साहेब को छोड़ते वक़्त।

लौट कर अपने सूने घर को देख रही हूँ। वो दरो-दीवार फुसफुसा रही है। बेचैन हैं वो भी। मेरी पति कह रहे हैं कि हर ओर हर कोने में साहेब की मौजूदगी साफ़ साफ़ नुमाया हो रही है। लगता है कि वो यहीं हैं अब तक। यहीं कहीं। उनका आसन, कमरा, वार्डरॉब हर तरफ़ बस गए हैं वो, और उनकी रूहानी ख़ुशबू। सुना था कि पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा की जा सकती है। पहली बार अपने सामने ईंट-पत्थरों को जागृत होते देखा मैंने। साक्षी हूँ।

एक मामूली इंसान इतना असरदार नहीं होता। हो ही नहीं सकता। उन्होंने भले ही रहस्य नहीं खोला अपना। पर दे तो दिया ही है सारा भेद अपना। इतना ऊपर का भेद कौन खोल सकता है भला, जो किताबों में भी नहीं है कहीं। मेरे कानों में अब तक बज रहा महासंगीत। जैसे बैठी हूँ अंतर्साधना में। मेरा कोई चक्र सक्रीय हो गया हो गोया।

ऐसे है हमारे मुर्शिद हमारे रहनुमा ,हमें हमसे और हमारे भीतर आसीन हमारे मालिक से ही जोड़ने आये हमारे प्यारे साहेब।और क्या लिखूं उनकी महिमा की गाथा को। कोई कथा हो तो लिखूँ भी। वो तो महक हैं। सुर हैं, संगीत हैं, जो बह रही है बस, थिरक रही है। उमड़ रही है बादलों की तरह। शब्दो में पूरी तरह बंध न सकेगी ये।सच कहो तो इस धरती पर वो लफ़्ज़ हैं ही नही जो पूरी तरह वखान कर सके उनका। महिमा गा सके उनकी। ये तो सिर्फ हमारे अंदर बह रहे शब्दो और तरंगों से ही संभव है और अंदर के शब्द लिखे नही जाते वो तो बस अनवरत बहते है एक नदी की तरह।हमारे भीतर।

उन दिनों ह्रदय में अंकित एक किताब के कुछ आधे अधूरे से पन्ने है ये। बहुत कुछ बाक़ी है अभी। पूरी किताब लिखना तो मुमकिन ही नहीं मेरे लिए। असंभव। अब बस करती हूँ, क्योंकि मेरी आँखों का मौसम बदल रहा है। वैशाख में अँखियाँ सावन-भादों हुई जा रही हैं।

जय गुरु देव साहेब।
कोटि कोटि प्रणाम।

विष्णु प्रिया की क़लम से



  • What a beautiful write up !!
  • नरेन्द्र वर्मा जी विष्णु प्रिया बहन जी आप पर सरकार की बहुत कृपा है जयगुरूदेव प्रणाम
  • Charan vandana Swamiji … Jaigurudev 🌺🙏🌺
  • 🙏🙏
  • Jai Guruji Dave 🙏🙏🙏🙏

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