जयगुरुदेव.

आप धरती पर गुरुत्व शक्ति से चलायमान हो.. सदगुरु की ही उर्जा से गतिशील हो.. जिसे आप ग्रेविटी कहते हो, समझते हो, वही तो आपके गुरु की ताक़त है, जो आपको पल पल सम्हाले हुई है, हर पल थामे हुई है. अगर आपका गुरु और उसकी उर्जा आपके साथ ना होते तो आप कहीं ना होते, कहीं के भी ना होते ना होते.. आपका तब ना तो स्वयं पर ना ही खुद की गति पर ही कोई नियंत्रण होता.. जीवन होके भी ना होता.. सोचो कितनी महान है गुरु कृपा.. और आप हो कि आपको इतनी बड़ी घटना का कोई बोध ही नही है, अहसास ही नही है. आभास ही नही है.. समूची रचना सिर्फ़ गुरु की जिस उर्जा से संचालित है, उसे शब्द कहते हैं. कहीं कहीं इसे ही नाद कहा गया.. कोई इसे ध्वनि भी कहता है. बाइबिल इसे ही वर्ड कहती है. शब्द ही समूचे विस्तार का आधार है, बुनियाद है, नींव है. जब उपर चढ़ोगे, झंझरीदीप से परे, सहसदल कंवल से आगे, नभ यानी पहला सुन्न, फिर उसके आगे गगन, फिर त्रिकुटी और गुरुपद के उपर, दसवें दरवाज़े से परे, मानसरोवर पर सारे बंधन त्याग कर सुन्न और महा सुन्न से रोटेटिंग केव.. की ओर, महा समय की तरफ तो पाओगे कि वहाँ शब्द ही शक्ति है, शब्द ही ताक़त है, शब्द ही उर्जा है.. शब्द ही सबकुछ है.. और जब कनेक्ट होगे अपने सार से, अपने सत्त से, तो पाओगे कि उसका नूर भी शब्द है, नाद है.. प्रभु शब्द है, सिर्फ़ शब्द है.. लेकिन उस शब्द को तुम तब तक जान ना सकोगे जब तक तुम शब्द को पा ना लोगे.. प्राप्त ना कर लोगे.. उसमें भींग ना जाओगे, सराबोर ना हो जाओगे, तब तक तुम्हे ये सारी बातें समझ में ना आएँगी.. थोड़ा अभ्यास करना होगा, प्रयास करना होगा, कोशिश करनी होगी.. यही कोशिश भजन कहलाती है.. भज + श्रवण.. यानी सुमिरन और श्रवण.. सुमीर कर सुनो.. यानि सिर्फ़ मतलब की धुनें सुनो…. और थामे रहो सदगुरु को.. वरना खो जाओगे नाद में, शब्द में, शब्दों के प्रपात में.. इन बाह्य कानों को बंद करना होगा.. इनमें उंगली डालकर इन्हे विश्राम देना होगा और तब रूह के, जीवात्मा के कान सक्रिय हो सकेंगे. जब ये बाहर का झूठा शोर बन होगा, तब तुम सुन सकोगे नादों के नाद को, महाधुनों को.. अनाहद को.. तब तुम धुनों के केंद्र में स्नान करने लगोगे, तुम्हे प्रतीत होगा कि तुम किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में भींगते जा रहे हो.. उसमे तर बतर होते जा रहे हो.. डूबते जा रहे हो..

यह अनुभव कई तरह से किया जा सकता है। कहीं भी बैठ कर इसे आरंभ कर दो। शब्द तो सदा मौजूद हैं.. चहुँओर.. चाहे घर हो या बाजार, आकाश हो या पाताल, समंदर का किनारा हो या पहाड़ो की गुफा, शब्द हर जगह है, सब जगह है. तुम तो बस खामोश होकर, सिमट जाओ.. समेट लो स्वयं को खुद के भीतर, स्वयं के अंदर.. सहज, चुपचाप.. मूक.. खामोश..

शब्द में एक बड़ी विशेषता है, एक बड़ी ख़ासियत है.. कि तुम्हारी जीवात्मा, यानि कि तुम सदैव उसके केंद्र में होगे.. अब वो भले चाहे कहीं से भी आएं, किसी भी दिशा से… किसी भी ओर से..

सुनने और देखनें मे यही बड़ा फ़र्क है.. देखने के साथ यह बात नहीं है.. देखने की क्रिया रेखाबद्ध है.. तुम मुझे देखते हो.. मैं तुम्हे देखता हूँ.. इसके लिए सीधा होना या सामने होना ज़रूरी है.. एक लकीर में.. तो तुमसे मुझ तक एक रेखा खिंच जाएगी.. यदि तुम और मैं एक लकीर में नही हैं तो एक दूसरे को देख ना सकेंगे.. लेकिन शब्द वर्तुलाकार है.. वह रेखाबद्ध नहीं हैं. धुन या नाद वर्तुल में आती हैं और तुम उनका केंद्र हो.. सेंटर.. तुम जहां भी हो, तुम और तुम्हारी जीवात्मा सदा शब्द का केंद्र है. समूचे ब्रह्मांड का केंद्र. आजमा के तो देखो.. श्रवण करके तो देखो.. तुम्हे लगेगा कि वह शब्द वर्तुल में तुम्हारी ओर ही मुखातिब हैं.. आकृष्ट है. वो तुमसे जुड़ना चाहते हैं.. तुम्हे खुद से जोड़ना चाहते हैं..

सदगुरु तुमसे पुकार पुकार के कहता है कि शब्द में स्नान करो.. डूब जाओ.. बह जाओ.. तुम जहां भी हो वहीं आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड सिर्फ़ धुनों से ही ओतप्रोत है.. शब्दों से ही भरा है. तुम महसूस करो कि हरेक धुन, प्रत्येक शब्द तुम्हारी ओर बही आ रही है.. और तुम उसके केंद्र हो। यह अहसास कि मैं केंद्र हूं, मेरी जीवात्मा सेंटर है इन धुनों का, शब्द का.. तुममे गहरी शांति भर देगा. तब तुमसे तुम्हारा वास्तविक परिचय होगा, जो अब तक ना हो सका था. तब समुचा ब्रह्मांड परिधि बन जाएगा और तुम उसके मध्य में होगे, केंद्र में होगे. तब तुम अनुभव करोगे कि हर शय, हर धुन, हर आवाज़, हर शब्द तुम्हारी तरफ बह रहे हैं.. जैसे तुम किसी विहंगम प्रपात की अखंड धुनों में स्नान कर रहे हो..

तब तुम्हे तुम्हारा, तुम्हारी जीवात्मा का, अपनें सदगुरु का, प्रभु का वास्तविक बोध होगा.. उससे पहले तो शायद हरगिज़ नही.

तुमसे स्वयं को केंद्र में अनुभव कराने से तात्पर्य यह है कि केंद्र में कोई शब्द नहीं है, केंद्र शब्द विहीन है, ध्वनि-शून्य है.. यही वजह है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है; अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती। ध्वनि ही ध्वनि को कैसे सुन सकती है. अपने केंद्र पर ध्वनि विहीन होने की वजह से तुम धुनों का श्रवण कर पाते हो.. तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं.. केंद्र तो मौन है, खामोश.. नि:शब्द.. शांत… इसीलिए तुम शब्द को अपनी ओर आते, अपने भीतर प्रविष्ट होते.. समाहित होते हुए महसूस कर पाते हो..

अगर तुम उस केंद्र को खोज सको जहां से सब झंकारें प्रकट हो रही हैं तो अचानक चेतना पलट जाती है और एक क्षण के लिए तुम स्वयं को निर्ध्वनि से भरे गुंगे जगत को पाते हो, किसे तुम अब तक जी रहे थे पर बेकार.. व्यर्थ.. निरर्थक.. और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाती है और तुम बस शब्द को, ध्वनि को, नूर को.. धुन को.. आनंद को.. उस वास्तविक जीवन को सुनोगे जो रचना का, समूचे जीवन और हर विस्तार का सार है.. और एक बार तुमने यदि उस आवाज़ को, उस आनंद को को सुन लिया तो अब कोई भी नशा तुम्हे हो नही सकता.. हो ही नही सकता.. संभव ही नही.. वह सुर, वह शब्द, वह नाद सदा तुम्हारी ओर बह रहा है.. आ रहा है.. क्योंकि तुम्हारा तुमसे अब तक परिचय ही नही था.. साक्षात्कार ही नही था.. तुम्हे खुद का बोध ही नही था.. तुमसे तुम्हारा, प्रभु का और शब्द का बोध सिर्फ़ एक संबुद्ध गुरु ही करा सकता है.. सदगुरु ही करा सकता है.. उसके लिए तुम्हे गुरु का, सदगुरु का होना होगा.. स्वयं को उसे अर्पित करना होगा.. समर्पित करना होगा.. सच में.. यथार्थ में..वास्तविक..

जयगुरुदेव.

दुबई सत्संग का एक अंश..


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