कृपया एक एक शब्द को ग़ौर से पढ़े।
॥जयगुरुदेव नाम प्रभु का॥
परम पूज्य गुरु महाराज की कृपा और निर्देश लेकर जब आप नियमित अभ्यास करने लगोगे तो पहले कुछ समय तक आपको शायद कुछ महसूस न हो सकेगा। दरअसल उस दरम्यान जो कुछ भी घटित होगा, वो अति सूक्ष्म होगा। इसलिये आप उसे रजिस्टर न कर सकोगे। क्योंकि आपका अंत:करण आपके अन्दर के कचरे यानि बेमतलब के विचारों के प्रवाह को क़ाबू करने नहीं दे रहा। आपको विचार शून्य और एकाग्र होने ही नहीं दे रहा है। और कचरे को बाहर निकाले बिना, जवाहरात के लिये जगह बन न सकेगी। अंत:करण का प्रयोजन ही यही है कि आप स्वयं की क्षमता से रूबरू ना हो सको। स्वयं को कभी जान न सको, जिससे जगत निर्बाध रूप से चलता रहे। अंत:करण का मतलब मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
नियमित साधना में कभी कभी बहुत मामूली साई अनुभूतियां होंगी। पर साधना की अनुभवों के किसी भी टुकड़े को मामूली समझना नादानी होगी। क्योंकि हर अहसास के रेशे ख़ुद में महासमंदर के सूत्र समेटे हुये हैं। अंतर्यात्रा में जब हमारी सुप्त ऊर्जा के कान और आँख धीरे धीरे सक्रीय होने लगते हैं, तो पहले आप स्वयं को किसी बिना पानी वाले या सूखे दरिया में तैरते हुए पाते हैं। वो दरिया कभी कभी बादलों से बना प्रतीत होता है, तो कभी शीतल धूम्र से। कभी आप ऊपर बहते हो, कभी नीचे। पर शनै: शनै: आपको उस प्रपात में बहते रहना आनन्द प्रदान करने लगता है, और आपको लगता है कि आपकी अनुभव यात्रा आरम्भ हो गयी है।
पर नहीं! …. ये साधना की अनुभव यात्रा का आग़ाज़ बिलकुल नहीं है। ये तो आप किताब की जिल्द का कोई एक हर्फ़ देख रहे हो। अभी तक आपने सफ़हे पलटे ही नहीं। चिलमन हटा ही नहीं। आप अभी तक दरीचे के बाहर ही खड़े हो। ये आवाज़ों के टिमटिमाते तारे तो पहले भी थे आपके जीवन में, पर आप कभी इन फ़िरोज़ी लम्हों को महसूस ही न किया। आपने इन्हें कभी ग़ौर से देखा ही न था। सुना ही न था। जिया ही न था। जान गये होते तो पाते कि ये झिलमिलाहट, जगमगाहट तारों की नहीं आवाज़ों के शम्स की है, नाद के महासूर्य की है। जब आप इन्हें जानोगे, तब आपको पता चलेगा कि ये आवाज़ों की नज़्म तो जनम से किसी मां की मानिंद आपकी उलटती पलटती सांसों में बुनी हुयी थी, बींधी हुई थी, पर आपको और इनकी हैसियत और क़ीमत का इल्म ही न था, आभास न था। आप हमेशा कंकड़ों को ही गौहर समझते रहे और ज़िन्दगी अता करने वाली मुफ़्त की ऑक्सीजन आपके लिये कभी ख़ास न बन सकी। अजीब है आपका पैमाना। जब आप ज़ोर लगा कर, बहुत ऊपर, ऊँचा ध्यान देकर सुनने की कोशिश करोगे तो विचित्र गुंजन के साक्षी बनोगे। ये ध्वनि तुम्हें अपनी सी लगेगी, जानी पहचानी सी लगेगी। लगना ही है, क्योंकि अब तुम अपने वजूद से रूबरू होने की कगार पर हो, तुम्हारी ख़ुद से मुलाक़ात की घड़ी आने वाली है। तुम्हें धीरे धीरे आभास होगा, कि ये गूंज तुमने तो पहले भी सन्नाटों में सुनी है। हां, ये सन्नाटों की आवाज़ है। अरे, क्या, सन्नाटे भी बोलते हैं। हां, सन्नाटे ही बोलते हैं। कोलाहल तो सदैव ही मूक होता है। तुम अब तक जिसे आवाज़ समझ रहे थे, वो आवाज़ थी ही नहीं। वो तो गूंगापन था। और तुम उम्र भर बेआवाज़ी को ही आवाज़ माने बैठे रहे।
अगर तुम उस केंद्र को खोज सको जहां से सब झंकारें प्रकट हो रही हैं और वहां से उलट कर अपनी अबतक की पिछली निरर्थक यात्रा को देखो, तो लगेगा कि अचानक चेतना पलट गयी है और एक क्षण के लिए तुम स्वयं को निर्ध्वनि से भरे नि:शब्द जगत में पाते हो, जिसे तुम अब तक जी रहे थे पर बेकार.. व्यर्थ.. अर्थ हीन। और जब, जिस क्षण तुम् अपनी चेतना को वापस अपने अन्दर मोड़ लेते हो, भीतर की ओर पलट देते हो, तब तुम बस महाशब्द को, महाध्वनि को, नूर को.. धुन को.. आनंद को.. उस वास्तविक जीवन को सुनोगे जो जगत की हर रचना का, समूचे जीवन का सार, और हर शय का विस्तार है। और एक बार तुमने यदि उस आवाज़ को, उस आनंद को को पा लिया तो अब कोई भी नशा तुम्हे हो नही सकता.. हो ही नही सकता.। संभव ही नही.. । हो ही नहीं सकेगा। क्योंकि जगत का कोई भी रंग उस महामस्ती को ओवर राइट नहीं कर सकता, उसपर कोई भी उपरिलेखन सम्भव ही नहीं है।
वह सुर, वह शब्द, वह नाद सदा, सर्वदा से तुम्हारी ओर बह रहें हैं.., तुम्हारी ही रूह का स्पर्श कर रहे हैं। पर तुम तो बेहोश हो। और तुम्हारा तुमसे अब तक परिचय ही नही है,साक्षात्कार ही नही है, तुम्हे खुद का बोध ही नही है। तुमसे तुम्हारा, प्रभु का और शब्द का बोध सिर्फ़ एक संबुद्ध गुरु ही करा सकता है.. सदगुरु ही करा सकता है.. उसके लिए तुम्हे गुरु का बनना होगा। सदगुरु का होना होगा..। स्वयं को उसे अर्पित करना होगा, समर्पित करना होगा। पूर्ण ह्रदय से, सच में.. यथार्थ में..वास्तविक..।
और बस, आप पायेंगे कि आपके जीवन में थिरकन और आनंद के बीज अंकुरित होने लगे हैं।
।।जयगुरुदेव।।
परम पूज्य सदगुरुश्री के सत्संग का एक अंश..।
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