आपकी हालत उस बहरे की तरह है, जो बोल तो सकता है, पर इसलिये बोल नहीं पाता क्योंकि उसका शब्द से परिचय नहीं है। वो जानता ही नहीं कि आवाज़ का मानी क्या है, स्वर से आशय क्या है, ध्वनि का अर्थ क्या है। अगर उसका परिचय ध्वनि से हो जाता तो वो भी गा लेता, गुनगुना लेता, बोल पड़ता, अपनें भावों को शब्दों में संप्रेषित कर पाता।सबकी तरह। मगर वो ऐसा नहीं कर पाता।
वो गूंगा नहीं है। बोल सकता है। पर फिर भी बोल नहीं पाता। क्योंकि वो उन शब्दों को ही नहीं पहचानता, जो उसके अंदर थिरक रहे हैं, खनक रहे हैं, उमड़ रहे हैं, घुमड़ रहे हैं। वो बेचारा नहीं है, फिर भी बेचारा है, क्योंकि उसका “स्व” से साक्षात्कार नहीं हुआ। अपने मूल से परिचय नहीं हुआ। उसमें भी अपार संभावनाएं हैं, भव्य क्षमता है, वो पोटेंशियली रिच है। हमसे तुमसे ज़्यादा प्रतिभावान है वो। पर उसे कोई रहबर नहीं मिला, सदगुरु नहीं मिला, जो उससे उसके “स्व” का परिचय कराता।
बात बस इतनी सी है कि बिना सदगुरु के, बिना उसकी कृपा के आप ना तो अपने पोटेन्शियल से परिचित हो सकते हैं, ना ही अपने लक्ष्य को प्राप्त हो सकतें है..। और जिसने सदगुरु को पा के खो दिया.., उनसे बड़ा दुर्भाग्यशाली इस धरा पर दूसरा कोई नही…।
एक मार्मिक घटना याद आती है कि गौतम बुद्ध का शरीर प्राणहीन पड़ा हुआ था..। अंतिम प्राण धनंजय भी बाक़ी के ९ प्राणों के साथ विदा हो चुका था। आसपास लोग बहुत थे पर था एक गहरा सन्नाटा..। मौन। स्तब्धता। महाशांति। सिर्फ एक ही चित्कार वातावरण की शांति की चादर को छेद रही थी। भेद रही थी। वो थी “आनंद” की कातर आवाज़। आनन्द का भयंकर विलाप धरती और आसमान दोनो को उद्वेलित कर रहा था..। सीना फाड़ रहा था।
आनन्द बुद्ध के सबसे करीबी शिष्य थे..। रिश्ते में वो बुद्ध के चचेरे या दूर के कोई भाई थे। बुद्धसे वो ७ साल बड़े थे। इसलिये बड़े भाई की तरह बुद्ध की व्यक्तिगत ज़रूरतों का खयाल वही रखते थे। बुद्ध से कब कौन मिलेगा, नहीं मिलेगा, ये आनन्द ही तय करते थे..। इसीलिये उन्होने अपने बहुत से शत्रु भी बना लिये थे..। विरोधी बना लिये। साधन भजन पर उनका ध्यान कम था, दुनियादारी में और “अन्य” चीजों में ज़्यादा। और अंत में यही “अन्य” उनके जीवन में शेष रह गया, बाक़ी रह गया। वो पूर्णता के निकट रहकर, बेहद क़रीब होकर भी अपूर्ण रह गये, अधूरे रह गये। सोने में मिलकर भी पीतल पीतल ही रह जाये, ऐसा उदहारण कम ही मिलता है। पर आप सबको देखकर लगता है, अब ऐसे उदाहरणों की कोई कमी न होगी।
आनन्द के कातर स्वर, उनका रुदन जब बहुत ज़्यादा मुखर हो गये, तब आश्रम के अधिकारी चिढ़ कर आये उनके पास.., और कहा की मान्यवर, ये आप क्या कर रहे हैं। ये आपको शोभा नही देता।उनके स्वरों में व्यंग भी था और तंज़ भी। वो बोले भूल गये आप गुरु के वचनों को,, उनके शब्दों को, उनके संदेशों को, उनकी बातों को…, कि जीवात्मा अजर है, अमर है..। कोई ना मरता है, ना मरेगा। जीवात्मा न पैदा होती है, ना होगी। सदगुरु भी यहीं हैं, हमारे बीच..। आप महसूस तो करो तीसरे तिल पर..। आज्ञा चक्र पर। पर आप ये अनुभव कहाँ कर पाओगे..। आप कर ही नही पाओगे ये दिव्य अनुभव। क्योंकि आपने उम्र भर सब किया, सब कुछ किया पर साधना ही ना की..। सत्संग ही ना सुना..। सन्यास में भी दुनियादार ही रहे। सदगुरु की बात समझी ही नही..। जब तब ना समझे तो अब क्या समझ पाओगे।
आनन्द का रुदन सहसा रुक गया। . पर हिचकी ना रुकी..।सिसकी ना रुकी। सिसकते हुये उन्होंने घूर कर देखा..। धीरे से सुबकते हुए बोले, .. कि, सुनो! भाषण मत दो.. ऐसे प्रवचन मैं तुमसे दो घंटे ज़्यादा दे सकता हूँ। मैं इसलिये तो रो ही नही रहा की सदगुरु हैं या नही..। जीवित हैं या मर गये। जीवात्मा अमर है या मरेगी..। मरती है तो मर ही जाये..। करूंगा क्या अमरता का खोखला झंडा लेकर..। धीरे से बोले कि मैं तो अपनी फूटी हुई तक़दीर पर रो रहा हूँ। कि लाखों जन्मों के बाद मुझे ये अवसर मिला था कि मैं खुद को इस भंवसागर से पार कर लेता..। इस जन्म मृत्यु के चक्रव्यूह से खुद को परे कर लेता ..। मुक्त हो जाता, निर्मुक्त हो जाता, चौरासी लाख योनियों से..। इस जन्म मृत्यु के झमेले से बाहर निकल जाता। सदगुरु थे, बुद्ध थे.., उनका शरीर था.., तो संभावना भी थी..। पर मैं मूरख..अभागा.. जनम जन्म के शुभ कर्मों से प्राप्त इस अमोलक अवसर को मैने हाथ में पाकर भी गँवा दिया..। मैं तो अपनी फूटी हुई किस्मत पे रो रहा हूँ, अपने हाथों से बिगाड़ी हुई अपनी तक़दीर पर रो रहा हूँ…।
आपके पास अभी भी वक़्त है। आप बुद्ध के आनन्द मत बनो। अमोलक वक़्त जाया मत करो। स्वयं का बोध कर लो। स्वयं में प्रभु का बोध कर लो। सदगुरु अपनी बाहें फैला कर खड़ा है, तुम्हारा आलिंगन करने के लिये। ये तुम्हारा सौभाग्य है।
प्रणाम।
जयगुरुदेव।
- Jaigurudev
- Jai Saddguru Shri🙏🏻💕🌺
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