जयगुरुदेव.
शिष्य बनना ज़रूरी नही है. कदापि आवश्यक नही है.
शिष्य बनना तो बेहद सरल है, बेहद सुगम. आसान.
शिष्य का अर्थ है सीखने वाला. विद्यार्थी समझ लो. चारो तरफ दुकाने खुली हुई हैं. सारे विद्यालय, महाविद्यालय और उसके भी उपर विश्वविद्यालय यही तो किये जा रहे हैं. वो शिष्य बना रहे हैं. चेले बना रहे हैं.
थोड़ा सा सीख कर फिर लगे सिखाने. खुद को विद्वान और एक्सपर्ट घोषित कर दिया. गुरु घोषित कर दिया.
बहुत लोग तो स्वयं को अपने गुरु का उत्तराधिकारी भी घोषित कर देते हैं. गुरु का भेष भी धर लेते हैं. गुरु की तरह अभिनय भी करने लगते हैं. यहाँ तक की अपना और अपने बच्चों का नाम भी गुरु ही रख देते हैं. पर इससे क्या होगा… इससे हासिल कुछ ना होगा. खुद तो भ्रमित हुए और सबको को भी भरमा दिया. खुद तो गिरे और सबको गिरा दिया.
संत मत और शब्द योग मे शिष्य बनाने की प्रथा कभी रही ही नही. यहाँ तो सदगुरु से प्रेम करने वाले होते हैं. सदगुरु के प्रेमी होते हैं. सदगुरु के प्रेम मे बहकने वाले होते हैं.. तडपने वाले होते हैं. यहाँ श्रम साध्य और कठिन साधनाओं की जगह सिर्फ सदगुरु के प्रति, प्रभु के प्रति, सत्त के प्रति प्रेम की तडप ही काफी है, सदगुरु से विरह की वेदना ही पर्याप्त है.
यहाँ गुरु भी दीक्षा नही देते, मंत्र नही देते. सदगुरु तो सिर्फ दान और उपहार देते हैं… शब्द का .. नाम का.. प्रेम का…
और यही प्रेम शब्द से जोड़ कर, जुड़ कर.. रूह को, सुरत को, जीवात्मा को सदगुरु से, प्रभु से, सत्त से, अनामी से कनेक्ट कर देता है, जोड़ देता है … और सुरत अपने सदगुरु से अंगिकार हो जाती है, उसके आगोश मे समा जाती है उसमे विलीन हो जाती है. स्वयं सत्त हो जाती है..
जयगुरुदेव.
परम पूज्य सदगुरुश्री के गुरुपूर्णिमा 2014 के सत्संग से
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- Jaigurudev 🙏🙏🌺🌺
- 🙏जय गुरुदेव
🙏जय सदगुरुश्री