ईश्वर के ऊपर पाँच तत्वों का कारण जगत है। वहाँ त्रिकुटी है। त्रिकुटी के तीन केंद्र हैं। गगन, महागगन और गुरुत्व धाम। सामान्य रूप से महागगन को ही त्रिकुटी कहते है। यहाँ लाल रंग का आकाश है। यही मुसल्लसी भी हैं, आलमे-लाहूत और अर्श-ए-अज़ीज़ भी। त्रिकुटी का उच्च शिखर ही द्वारिका है। यहाँ के मालिक…


ईश्वर लोक में मस्त कर देने वाली घनघोर सुरीली अनहद ध्वनियों की दो धाराएँ हैं। एक खनकता गुंजन है तो दूजा मीठा नाद। एक धारा से किसी विशाल घण्टे की घेरती आवाज़ से निहं सी अलौकिक ध्वनि प्रस्फुटित होती है। तो दूसरी धारा किसी शंखनाद सी मिठास लिए ऊपर चढ़ कर निहंहं सा नशीला स्वर…

जब आप नीचे उतारे गए तो नीचे से ऊपर आने का रास्ता बंद हो गया। तब राधास्वामी ने महासुन्न के मालिक जोगजीत को आत्माओं को वापस लाने के लिए साथ लिया। फिर तीजे तिल पर पैर जमाया। जोगजीत को ही सुप्त सन्त या गुप्त संत कहते हैं। सोलह पुत्रों में से तेरह पुत्रों को ऊपर…

ईश्वर का धाम बड़ा अलबेला है। वह सूक्ष्म जगत है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध और अंतःकरण सहित नौ तत्वों का ये संसार बेहद अदभुत है। वहाँ घनघोर सुरीली गूंजती हुई अनहद ध्वनियाँ जैसे खैरमकदम कर रही हों। उस निनाद का प्रथम उदगम, पहला परिचय नौबतखाना है। यही सहसदल नाका है। यह नाका स्वयं में…

शक्ति लोक से ऊपर झंझरीद्वीप के अंतिम छोर पर अविद्या माया का जाल है। उसे ही संतों ने वज्र किवाड़ कहा है। उस फंदे से बाहर निकलना कठिन है। अविद्यामाया और उनके आदेश पर ऋद्धियाँ सिद्धियाँ वहाँ उन सुरतों को जिन्होंने नाम की कमाई की है और वहाँ तक पहुँचीं हैं, उन्हें अपने जाल में…

ईश्वर ने अण्ड और पिण्ड यानी लिंग और स्थूल जगत रचकर उनके लिए आहार रचा।इंद्रियाँ और ऐंद्रिक सुख दुःख बनाए। साथ ही अच्छे-बुरे कर्म और उसके भोग निर्मित किए। और कर्मों का विधान बना कर सुरतों को बांध दिया। बेचारी सुरतें अच्छे-बुरे कर्मों में फँस गयीं। और मन व इंद्रियों के लिए दिन रात उलझ…

ईश्वर जहां निवास करते हैं वो विशाल चमचमाता लोक है, जिसे सहसदल कँवल कहते हैं। बौद्धों का यही निर्वाण पद है, यही साकेत है, तुरीयपद है, वास्तविक अयोध्या है, कैवल्य पद है, ईश्वरीय चरण है। इसके ऊपरी मुहाने पर सुन्न शिखर है। वहाँ एक आकर्षक ज्योत में ईश्वर आसीन हैं, … More

तुम स्वयं को सत्संगी तो कहते और समझते हो, पर क्या सच में सत्संगी हो? यदि तुम सत्संगी होते तो तुम्हारी ये दुर्गति न होती। अगर तुम सच्चे सत्संगी होते तो गुरु महाराज को यूँ लुप्त होने की ज़रूरत ही न होती। जो तुम सच्चे सत्संगी होते, तो गुरु महाराज की इस मौज की तुम्हें…

पहले अपनी हर अनुभूतियों के रेशे रेशे को पका कर पक्के ज्ञान और अनुभव में तब्दील कर लो, जिसमें बेपनाह गहराई हो और बला की ऊँचाई हो। फिर गुरु की अनुमति से दुनिया को ज्ञान दो, बताओ, सिखाओ,नसीहत और उपदेश दो। वो भी समय पर या अपनी बारी आने पर ही। उससे पहले तो हरगिज़…

बिना हासिल किए किसी को कुछ भी देना संभव नही है। जैसे तुम्हारे पास खुद के लिए पर्याप्त धन न हो,और लगे बाँटने, तो क़र्ज़ा हो जाएगा और दिवालिया हो जाओगे। इसी प्रकार साधना में बिना कहीं पहुँचे, अनावश्यक सीख, नसीहत और प्रवचन सिर्फ़ ऐसी कोरी बकबक है जिससे किसी को कुछ प्राप्त तो नही…